Friday, January 17, 2014

कबूतर के बच्चे ...

कयास लगाते देखा था,
रातों को सपनों में
तेरे बेताबी को, … की,
मैं एक निरमोही हूँ,
निष्ठुर हूँ,
जो तेरे रूहों को
अपने साँसों से नहीं छूता,
तेरे प्यासे होठों को
अपने प्रेम के उचास की ताप नहीं देता,
जो तेरे समर्पण को
सिंदूर की स्वीकृर्ति नहीं देता,

अगर जो तू भी
यही सोचती है मेरी प्रेयसी
तो बता दू,
तू पूर्णतः गलत है,
सच तो ये है  … कि
मैं अपने मन मंदिर में
तुझे जीता हूँ,
तुझे पूजता हूँ,
तेरी देह की खुशबू को
अपने नथुनों में
तेरे संग न होने पे
महसूसता हूँ,
तेरी तरह विरह के
नाजुक पलों में
मैं भी द्रवित होता हूँ,

क्या तुम्हें ये सब नहीं दीखता ?

सुन जो तुमको
ये सब देखना है तो,
अपने कमरे के
जिस बिस्तर पे तू सोती है
उस के चारों ओर
एक सच की परिधि बना लेना,
और कमरे की
उस पुरानी लालटेन की रोशनी को
मेरे याद से शर्मिंदा कर देना,
फिर सच की
उस परिधि को बोलना
जो पल मैंने अपने यार के साथ बिताई है
उन लम्हों को
जुगुनों में तब्दील कर के खुद पे सज़ा ले,
जब जुगनुयें उन लम्हों में धँस कर
हमारे तुम्हारे प्रेम में टिमटिमा उठे,
तब तू अपनी आँखें मूंद कर
मेरी ख्यालों के कांधे पे सर रख कर
खुद से दूर चले जाना,

फिर तुझे मैं दिख जाऊँगा,
तेरी व्यस्ता की सलमा सितारे की
चुन्नी के उस पार,
झूठी और मतलबी
गैर इश्क महजबी जहाँ के उस पार,
तेरे प्रेम में,
अपने अकेलेपन के कबूतरों को
तेरे ही यादों का दाना डालते हुए,
और बतियाते हुए,
सुन वो आयेगी,
वो जरुर आयेगी,
क्यों की वो मुझसे
बे इम्तिहाँ प्रेम करती है,
जिसका साक्षी है तू
जो उनके यादों के दाने को
पागलों के तरह चुग रहा है,
और सुन
ये इल्जाम, तोहमत के दाग
जो उन्होंने मुझे दिए है, उनको
वो मेरे प्रेम की पागलपंती से आके धोएगी,
क्यों की जितना मैं पागल हूँ
उससे कहीं जादा वो मेरे प्रेम में पगली है,
कबूतर के बच्चे,
ये सुन ले कान खोल के और समझ ले तू,
चल जा अब
ये अकेलेपन की दुकान कहीं ओर लगा,
वो इस कविता को पढ़कर अब आने ही वाली होगी   !!

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