Thursday, January 2, 2014

तू और मैं ...

तेरा ख्याल आते ही
न जाने
मेरे मन और हृदय को
क्या हो जाता है?
दोनों बचपन की गलियों में
नंगे पावँ जाके जैसे खो जाता है,

वही बचपन
जहाँ तू और मैं अक्सर
घरोंदा का खेल खेला करते थे,
तू अपनी
गुड़िया की दुल्हन को सजाती थी,
और मैं
अपने गुड्डे को सजाता था,
जैसे ब्याह वो दोनों का नहीं
हम दोनों कर रहे थे,
सारे रस्म रिवाजों का
पता तो नहीं था,
पर ये जानता था मगर
मेरे गुड्डे कि दुल्हन तेरी गुड़िया है जैसे,
वैसे ही तू मेरी दुल्हन है,

क्या हम आज फिर से
वही खेल नहीं खेल सकते,
मैं तो चाहूंगा,
आज फिर से तुम
मेरी दुल्हन बन जाओ,
हम फिर से वही बचपन की
कागज की कस्ती बनाये
और भावनाओं के धारा में दूर बह जाये,

इतनी दूर
जहाँ एहसासों का श्वेत सा आसमा हो,
उन आसमा के नीचे
तेरे मुस्कान का आलिंगन बिखरा हो,
और
तू मेरी बाँहों में
मैं तेरी आँखों की आगोश में रहू,

जहाँ दिन
रात भी हो तो तेरे अधरों पे हो,
तू सजे भी तो श्रृंगार मुझे बनाके
तू हँसे भी तो मुस्कान मुझे बनाके
तू द्रवित हो भी तो ताप मुझे बनाके
ऐसे पावन लम्हों का सिर्फ और दौर हो,
बस प्रेम और प्रेम हो,
और फिर
वो सारा का सारा प्रेम
तेरे मेरे नस नस में उतर जाए,
तू मेरी और मैं तेरा
युगों-युगों के लिए बन जाए,
और फिम हम
प्रेम की गलियों महसूर हो जाए,
जैसे आज भी वो महसूर है,
राधा-किशन
प्रेम के दीप का उचास लिए
क्या तुम होना चाहोगी , मेरे साथ खोना चाहोगी ?
मेरी प्रियसी बोलना तुम… 

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