Friday, December 6, 2013

दाह संस्कार ...

कहते है
मुख में अग्नि
मरणोपरांत दी जाती है
अब इसको क्या कहे
जो एक अरसे से
मैं खुद की मुख में अग्नि
का धधकता हुआ ताप रखता हूँ
शायद
साबित करने को
कि इस हाड़ मांस के जिस्म के अंदर की आत्मा
दम तोड़ चुकी है
बहुत पहले
अब तो रोज अपने अस्तिव का दाह संस्कार कर रहा हूँ
पर कोशिश हर रोज असफल रहती है
कुछ क्या बहुत कुछ जलता भी है
हासिल राख भी होता है
लेकिन खोखली जिद्द की हदें इतनी ऊँची है
उस राख को झटक
फिर से खड़ा हो उठता है मेरा कद
मेरा इंसानी कद सरीक बदन
पीड़ा के फोड़े से रिसते पानी को
आँसू का बूँद समझ कर पोछ तो लेता है
पर दर्द के टीस से
नमक पड़े होठों को न छुपा पाया है
न छुपा पाता है
यहीं से शुरू होता है
लोगों के उपहास का सिलसिला
जो किसी दर्जी के मशीन के सामान होता है
कुछ दर्द को सील तो देता है
पर गुदरी के लिहाफ के जैसे
जिसके आस्तीन में कई रंगों के कतरन
के जमावड़ा छोड़ जाता है
और
फिर दूसरा कोई
मेरा ये लिहाफ देख कर
मेरे निर्धनता पे पत्थर मरता है
उपहास उड़ाता है
मेरे आत्म सम्मान जैसे चीज को
पावं तले रौंदता है 
बिना मेरा मानसिक मनोदशा को जाने समझे 
क्या ऐसे में
मेरे हाँथों किया गया
वो दाह संस्कार किस मायने में गलत है
अगर में सालीनता से
तिल तिल करके रोज खुद को
अपने अस्तिव को मिटा रहा हूँ तो
मुझे लगता है कोई गलत काज नहीं है
क्योंकि
इस जीवन का अंत तो मौत है
फर्क सिर्फ इतना है
मैंने अपनी मौत कि पहचान पहले कर ली है
बस देख रहा हूँ
और
कितनी अधजली साँसें सीने में बाँकी है
और कितने
अपने आत्मसम्मान का दाह संस्कार करता हूँ !!

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