Friday, November 29, 2013

वियोग की आखरी रात ...


खिड़की से चाँद को
निशब्द सी निहारती
अल्हड़ सी
कविता की मेरी वो प्रियसी
जो घुटने तक
मेरे विरहा की दलदल में धँसी थी
वो मानो उस चाँद को
एक निवाले की तरह आज निगल जाना चाहती थी
और अपने
उधेड़ बुन की साख से
वियोग के उल्लू को डण्डे मार मार
भगा के
सुबह कि लाली के साथ
पँछियों के कलरवों संग खुद को
गुम कर देना चाहती थी

क्योंकि
उसे कल ही मेरा एक ख़त मिला था
जिसमें मैंने
पूर्णमासी की इस पूर्ण चाँद कि रात के बाद का
मिलने का वादा किया था

पर मुयी
रात तो रात ठहरी
जो सरकती अपने वक़्त के साथ ही है

मिलन की आतुरता इतनी सख्त थी कि
उसके चेहरे के हाव भाव खुद-व-खुद
आड़े तिरछे होके परिवर्तित हो रहे थे
जिसे ज्ञात कर लिया था
उस कमरे कि मध्यम सी रौशनी ने
जो मुंडेरे के डिबरी
सुर्ख शरद हवा के थपेड़े सह कर फैला रही थी
बीच बीच में वो
चुनरी कि पल्लू अपने उँगलियों में घूमा घूमा के लपेट रही थी
होंठ सिर्फ मुखर नहीं थे उसके
पर बाजू वाली लाल मूँगे से सजी ऊँगली को
नैन बहुत कुछ बोल रहे थे

तेरी वियोग भी खत्म करवा दूँगी
मुझे मेरे प्रिय से मिल तो लेने दे
एक छल्ला उम्र भर का
तेरे बाजू के तन्हा पड़ी ऊँगली में
उनके हाँथों से डलवा लूँगी
फिर हम सब पूर्ण हो जायेंगे
इस पूर्णमासी की रात के बाद

बस ये मुयी रात
सरक जाये
जितनी जल्दी से हो जल्दी …

Thursday, November 28, 2013

बाट में प्रियसी ...


वियोग में चकोर सी निग़ाहें
कर के बैठी मुंडेर पे
अपने आँखों को अपलक झपकाती
वो मेरी प्रियसी,

मन में भावनायों के असीमित सी
वेदना लिए
कभी अपने कमरे में दाखिल होती
कभी मुंडेरे में आ बैठती
कभी आईना निहारती
अभी रूत को कोसती
अभी ताखे पे
एक लाल लिफ़ाफ़े में
लपेटा हुआ
मेरे हिजर कि मुफ़लिसी से भरा
वो ख़त
जिसमें मैंने उकेर दिया था कभी
वियोग कि अपनी वो तमाम रातें
जो बगैर उनके मैंने काटे थे,
उसे उसके शब्दों के एहसासों संग पढ़ती
और मन मसोस कर
लहू का कतरा सा
वो एक बूँद आँसूं
प्यासी ज़मीं के सुपुर्द कर देती,

फिर तुरंत उसे
न जाने क्या हो जाता
चोके में जा
बुझी हुई राखों में
कुछ बीनने लगती
जैसे किसी ठंड पड़ी
किस्मत कि चिंगारी को वो
अपने इरादों से प्रज्वलित
करना चाहती हो
वही कोने में रखे
धान की बोरे को देखती हैरत से
जब पिछले कई महीने से
यूँ ही पड़े इस धान के बोरे से कोपलें से
निकल सकते है
तो फिर मेरे
एक दशक के सपनों के बंजर पड़े खेत में
प्रेम और खुशियों की  बियाड़ क्यों नहीं लग सकती,

इसी आस पे वो पगली
रोज दरवाज़े को सांकल को पोछती
की जब कभी वो मेरा प्रिय आएगा
तो देखे
मैंने भी उसके इंतज़ार में
हर चीज़ को कैसे नाजुकता से संभाल के रखा है
जिस जिस चीज़ को उसकी स्पर्श छुएगा
चाहे फिर
वो मेरा देह हो या पवित्र मन ...!!