Monday, March 25, 2013

जब झाँकती है वो


एक भोली सी
ज़िद्द ही उनका मेरे
जीने का सबब है
जब झाँकती है वो
दरारों से मेरे घर को
फिर उनका उन दरारों
घर कह जाना ही गज़ब है

उलझ जाता हूँ मैं
बारिशों में टपकते
अपने छतों को देख कर 
उनका उन टपकते पानियों को
हिज़ाब कह जाना ही गज़ब है

ज़मीन पे बिखरा
लेटा रहता हूँ
अक्सर उनके यादों में
उनका मिट्टी के इस
बिछोने को ख्वाबगाह
कह जाना ही गज़ब है

तिलस्मी किवारें
मेरे घरों की
जब हवाओं के संग
शोर करती है
फिर उनका उन शोरों को
मेरी आह
कह जाना ही गजब है 

भूख से चीत्कारता
मन मेरा
जब गैरों को
अन्न के टुकड़े बाँटता है
फिर उनका मेरे इस
रहमदिली को
प्यार कह जाना ही गज़ब है

अपने आस्तीन के
खाली जेबों के सहारे
मुफ्लिशी मैं रोज
बिफर रहा हूँ मैं मगर
उनका उन खाली जेबों में
मेरे इश्क़ का दीनार
भरा है
कह जाना ही ग़जब है !!

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