Friday, March 22, 2013

कटिंग धाड़ ...

गोय्ठों की छाप से
धूमिल दीवारों की सफेदी
अधकीचरों शब्दों से
जैसे किसी ने सफ़ेद पन्ने को
अपने कुरीतियों से ढ़क दिया हो
और बची खुची ज्ञान
ईटों की तरह दीवार
की नींव को बचाने में
अपनी ताकत झोंक रहा हो

व्यर्थ के ये प्रयत्न है सारे
क्यूंकि मानसिकता
आज शून्य पे जा पहुँची है
भूख और कोलाहल
इतना बढ़ चुका है
की इंसा अपने ही
सीमा भूल चुके है
तभी तो अपने दक्षता
साबित करने के लिए
अधकिचरें बिंगे हाफ रहा है
और दुसरें की हदे धूमिल कर रहा है

सच्चे मायने में आज ज़रूरत है
ऐसे इंसानों को और सामाजिक
परिवेश में रहने वालों
ऐसे क्षुब्द बुद्धिजीवी को
हमारे शहर से गुजरने वाली
शोक ग्रस्त तीखी नदी कटिंग धाड़ की
क्यूंकि जब ये इनके
मनमस्तिक से होकर गुजरेगी
एक बाढ़ सी स्तिथि पैदा होगी
जो गुजरने के पश्चात
इनके मानसिकता को कोरा कर देगी
और फिर इस कोरेपन में
जो बीज ज्ञान का बोया जाय
वो पोधे से पेड़ की श्कल
कटिंग धाड़ की तरह लेगा
जो एक साफसुथरे ज्ञान की
दूकान की तरह होगी
जिसके खरीदार अच्छे ज्ञान की
पुस्तक के बदोलत हमारे समाज
और परिवेश को साफ़ सुथरा रखेंगे
गंदगी और धूमिल नहीं !!

2 comments:

  1. ohh kitni gahrayi hai tumhari rachna me ....sach kaha jarurat hai buddhijiviyo ki jo samaj se kachre saff kar sake ....bahut khoob :)

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