Saturday, November 24, 2012

हर रात मुझसे उलझता है क्यूँ कोई ...




हर रात मुझसे उलझता है क्यूँ कोई,
मेरी नींदे छीन के अपने होने का एहसास देता है क्यूँ कोई ! 
 
है जब पता उनको मेरे बेचैनियों का,
फिर मेरा चैन लेता है क्यूँ कोई ! 
 
में ढूंढ़ता हूँ हाथों के लकीरों में बार बार नाम जिनका,
जाने क्यूँ ..जान के ये, अपनी पहचान छुपता है क्यूँ कोई !
 
हर रात मुझसे उलझता है क्यूँ कोई,
मेरी नींदे छीन के अपने होने का एहसास देता है क्यूँ कोई !
 
खामोशियों में मेरे आते है जिनके ख्याल अक्सर,
पास होक भी वही  दूर होने का एहसास जताता है क्यूँ कोई !
 
भटक के कहाँ आ निकला हूँ जहाँ अपना दीखता नहीं है कोई,
फिर हँस के मुझसे मेरे गुमनामी का पता पूछता है क्यूँ कोई !
 
आ गई है जिनके बदहाली में,घर के दीवारों पे बहुत सारे दरारें,
ऐसे में बिना बुलाये उन दरारों से झांकता है क्यूँ कोई !
 
हर रात मुझसे उलझता है क्यूँ कोई,
मेरी नींदे छीन के अपने होने का एहसास देता है क्यूँ कोई !!

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