Sunday, November 13, 2011

आशाओं का सवेरा ...!!

गम की सतहों पर आशों का सवेरा था,
दूर थी, मंजिल मगर पास किनारा था,
ख्वाब तो थे ज़िंदगी के बहुत मगर उनका नहीं कोई बसेरा था ,
गम की सतहों पर आशों का सवेरा था !!
न जाने क्यूँ इतनी बोझील हो गई,
ज़िंदगी अपने ही ख्यालों में,
शायद फुर्सत से ये बातें करूँगा,
अपने जेहन से सवालों में,
अब तो हर वक़्त जलता रहता हूँ घनी पेड़ की छाओं में,
चाहे खड़ा रहू कहीं भी या किसी भी फिजाओं में,
गम की सतहों पर आशों का सवेरा था,
दूर थी, मंजिल मगर पास किनारा था !!

लगता हैं हम जैसों की ज़िंदगी का कोई पहलु न होगा,
बयाँ करने के किये पन्ने तो होंगे,
मगर पढने के कोई मज्बुल न होगा,
अल्फाजों के फूल गिरेंगे जरुर राहों पर,
जब काटों से जख्मी पेड़ न होगा,
हंस लो यारों मुझपे मगर हमको है ये यकीं,
भँवर तो होंगे ज़िंदगी में बहुत मगर, एकदिन उनपे कोई मिर्ग तृष्णा न होगा !
गम की सतहों पर आशों का सवेरा था,
दूर थी, मंजिल मगर पास किनारा था !!

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