Thursday, November 24, 2011

तू वापस आजा ....!!

थक गई है नज़रे लहू लुहान हुआ पड़ा है दिल ए अरमान,
बेबसी ओर बेकदी का बोझ ढ़ोते ढ़ोते झुक गया है आत्म सम्मान !!

ये छंद, ये काव्य, ये ख्वाब, ये मंजिल,
ये रिश्ते, ये नाते, ये जख्म, ये दर्द,
सब के सब तीर चुभाते दीखते है,मूक बनके बैठे मेरी चाहत पे,
जब तू एक खामोश होकर रूठ जाता मुझसे,
ऐसी ना जाने कितने उँगलियाँ उठ जाती है मेरी वफ़ा के अस्मत पे,
इल्तजा मेरी बस यही होगी ऐ मेरी पाक-ए-सनम तुझसे,
तू हर खता कर ले मुझसे बस यूँ खामोश ना हो इस दिल से !

कहीं दरख़्त से झांकती मुझको आज भी फेरों का वो मंजर,
जिसको तेरी बेवजह की दूरियों ने बना दिया है खंजर,
वक़्त की कुटिलता ने ले लिया है बहुत इम्तहान रिश्तों का,
महसूस कर मेरी आखों से दर्द इनका ओर फ़र्ज़ निभा अपने हिस्सों का,
इससे पहले की ठेस ओर पहुंचे मेरे आत्म सम्मान को
ओर टूट के बिखर जाऊं तेरी राहों में,
तू वापस आजा बनके वही खुशियों मेरी बाँहों का,
तू वापस आजा बनके वही खुशियों मेरी बाँहों का ... !!

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