Sunday, November 13, 2011

लाश है तू ... !!


दफन करने पे तुला है यहाँ
इन्सान इन्सान के वजूद को,
चन्द पल के अहम के लिए
लुट रहा है वो अपने ही माँ के सपूत को,
क्या जात क्या पात और क्या मजहब,
आतंक को जेहाद का नाम देना,
क्या यही सिखाते है उनके रब !
गुमनाम और लाश बनके जीने वाले काफिरों,
देख तेरी हैवानियत ने क्या दिया मेरे मुल्क को,
हम अपने ही भाइयों की छवि ढूंढ़ रहे है
इन बिखरें हुए जिस्म के टुकरों में,
और महसूस कर रहे है तेरे जुल्म को !

कर ले तू अब आतंक और जुल्मो की हर हदे पार,
बेच दे तू खुद के ज़मीर को एक बार फिर सरहद के पार
,

देखना एक दिन तेरे इस आतंक के बीच चीख
तेरे अपनों की होगी,
तेरे माँ के आँचल पे दाग तेरे लहू की होगी,
उस वक़्त भी तू अपने गैरत को आवाज़ मत देना,
लाश है तू और
लाश का ढेर लगा देना !!

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